Monday, May 17, 2010

सागर किनारे ....


सामने विशाल झील
पीछे है एक वृहत शहर
कितने भिन्न हैं दोनों किनारे
एक मस्ती का आभास कराये तो दूजा दे मन का आनंद
आसमान से झील को मिलते देखा
जैसे विचारो को गति पकड़ते देखा
रेत कितना आनंद देता
शीशा बन फिर दर्द भी देता
बच्चे सपनों के घरोंदे बनाते
आकृति मिटाते , बनाते, खिलखिलाते
गीले होकर मन ही मन सयाते
हम भी एक दो छींटे सहलाते
और विचारों की सौंधी हवा में खो जाते
जैसे सुबह की ओंस की बूंदे मुंझे जगा रही हो
जैसे जन्नत या सपनों की मनोहारी तरंगे हो
गद्य और पद्य लिखते, मिटाते और सोचते
अपनी प्राणप्रिये को गले लगाते
जिनको घर पर देख स्वभावबस गुसियाते
रेत की गर्मी और टहलते दौड़ते लोग
नावों पर सवार उन्मुक्त मस्त परवाने लोग
हर तरफ आनंद और अंतहीन मस्ती में डूबे लोग
तरो ताजा मेरे मन को करते मेरे मन के संतुष्ट भाव

PS : ये कविता मेरे ब्लॉग मेरी आवाज पर  एक पोस्ट शिकागो की एक सैर मेरे साथ - एक दिन में ... का हिस्सा है.

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