Friday, October 29, 2010

जीवन

ये जीवन भी धूप छाँव का रेला रे

कभी कठिन तो कभी सरल सा लागे ये

अग्नि क्रोध की कभी उठे

तो कभी समुन्दर उत्सव के

कभी मोह की पाँश का झंझट

कभी अर्थ संचय का चिंतन

कभी बिछडने का गम घेरे

कभी मिलन की आश सँवारे

दम्भ घोर अन्धकार घुमाये

गर्व अनुभूति आनन्दोत्सव ले आये

कभी अतृप्ति अकेलेपन की

कभी विक्षोह परम मित्रों का

इन्द्रधनुष तो बस सतरंगी

जीवन के मेले बहुरंगी

 

मेरी आवाज

Monday, October 18, 2010

अकेला हूँ तो क्या हुआ

अकेला हूँ तो क्या हुआ
तलवार नहीं तो क्या हुआ
जश्ने बहारों का रेला मेरी तरफ नहीं तो क्या हुआ
आवाज तो गूंजेगी
मेरे सतत चिन्तन से
अनवरत सत्य से
दीपक जलाता रहूँगा
आँधी के रेले हैं तो क्या हुआ
मरुस्थल में प्यासा हूँ तो क्या हुआ
रेत पर चलता रहूँगा
लिखता रहूँगा !!